आज जबकि प्रदेश में विधानसभा चुनाव केवल 6-7 महीने दूर रह गए हैँ, भाजपा के लिए एक ऐसी सांप-छछूंदर की स्थिति खड़ी हो गयी है कि उस से ना निगलते बन रहा है ना उगलते।
दरअसल मामला है गैर विधायक मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के विधानसभा का सदस्य बनने का। पिछले काफी समय से चल रही मुख्यमंत्री बदलने मांग पर जब अंततः भाजपा हाई कमांड ने निर्णय लिया तो बहुत से नामों पर मंथन चिंतन करने के बाद भाजपा ने एक बार फिर से अपने चिर परिचित अंदाज में रेस में चल रहे सभी प्रत्याशीयों को दरकिनार करते हुए अप्रत्याशित निर्णय लिया और एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बना कर सभी को चौंका दिया जो कि मुख्यमंत्री बनने की रेस में जाहिरी तौर पर कहीं शामिल ही नहीं थे।
हालांकि व्यक्तिगत तौर पर देखा जाये तो मुख्यमंत्री बने तीरथ सिंह रावत ना सिर्फ साफ सुथरी छवि वाले, ईमानदार और पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ता हैँ, बल्कि एक सांसद के नाते, पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष के नाते, और प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री के नाते उनकी प्रशासनिक क्षमताओं पर भी कोई प्रश्न चिन्ह नहीं था।
कुम्भ का सफल संचालन हो (जितने समय भी चल पाया) या कोविड से निपटने में राज्य सरकार की भूमिका हो, उन्होंने दोनों में एक बेहतर भूमिका निभाई। लेकिन प्रशासनिक पकड़ बनाने में वे थोड़े कमज़ोर साबित हुए।
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असली समस्या तब खड़ी हुई जबकि संवैधिनक अनिवार्यता के चलते उनके विधानसभा मे चुन कर आने के ऊपर संदेह के बादल मंडराने लगे। मुख्यमंत्री बने रहने के लिए उनको 9 सितम्बर से पहले विधानसभा का सदस्य बनना परम आवश्यक ही नहीं, संवैधानिक बाध्यता भी है। लेकिन यहाँ उनकी निजी सलाहकार मण्डली के साथ साथ चुनाव मशीन की उपाधि से अलंकृत भाजपा हाई कमांड से भी एक भारी चूक हो गयी। सर्वोत्तम परिस्थिति तो यह होती कि मुख्यमंत्री बनते ही पहले से खाली हुई ‘सल्ट’ विधानसभा से उनको चुनाव लड़वा कर विधानसभा का सदस्य बनवा दिया जाता। लेकिन उस चूक का कारण था कि तब भाजपा यह सोच रही होगी कि ‘यमकेश्वरर’ या किसी और सीट से वर्तमान विधायक का इस्तीफा करवा के उनको चुनाव लड़वा दिया जायेगा।
लेकिन तब भाजपा के रणनीतिकारों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि 10 मार्च 2021 को तीरथ सिंह रावत जी जिस प्रदेश की कमान संभाल रहे हैँ उसकी विधानसभा का कार्यकाल 23 मार्च 2022 को समाप्त होने जा रहा है। यानि कि उनको किसी भी विधायक से 23 मार्च से पहले पहले इस्तीफा करवा के मुख्यमंत्री के लिए सीट खाली करवा लेनी चाहिए थी।
हालांकि इस बात से अनभिज्ञ प्रदेश भाजपा की टीम और केंद्रीय नेतृत्व उनके लिए ‘गंगोत्री’ के विधायक गोपाल सिंह रावत की कोरोना से हुई मृत्यु के कारण खाली हुई सीट पर उनको चुनाव लड़ाने की तैयारी में जुटा है, जबकि लोक जनप्रतिनिध्त्व अधिनियम 1951 की धारा 151(A) के चलते यह चुनाव करा पाना चुनाव आयोग के लिए संभव ही नहीं है।
इस धारा का अध्ययन करें तो आप पाएंगे कि अगर कोई विधानसभा सीट जिस तिथि पर रिक्त हुई है, उस तिथि और विधानसभा के कार्यकाल सम्पूर्ण होने में एक साल से कम का वक़्त है तो वहाँ पर उपचुनाव नहीं करवाया जा सकता।
अभी हाल ही में सन 2018 में जब कर्नाटक की तीन, और आँध्रप्रदेश की 5 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव होना था तब चुनाव आयोग ने कर्नाटक की तीनों लोकसभा सीटों के लिए तो अधिसूचना जारी कर दी, लेकिन आँध्रप्रदेश की 5 सीटों के लिए उसने कोई चुनावी प्रक्रिया शुरू नहीं करी, तब विपक्षी पार्टियों द्वारा खूब हो हल्ला मचाया गया कि चुनाव आयोग भाजपा को फायदा पहुँचाने के लिए कर्नाटक मे तो चुनाव करवा रहा है, लेकिन आँध्रप्रदेश में चुनाव कराने से बच रहा है।
तब चुनाव आयोग द्वारा 9 अक्टूबर 2018 को एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गयी, जिसमें उसने इसी लोक जनप्रतिनिध्त्व अधिनियम 1951 की धारा 151(A) का हवाला देते हुए बताया कि कर्नाटक की लोकसभा सीटें मार्च माह में रिक्त हुई थीं और आँध्रप्रदेश की सीटें मई माह में रिक्त हुईं, अतः लोकसभा के कार्यकाल के पूरा होने में एक साल से कम समय बचा होने के कारण आँध्रप्रदेश की लोकसभा सीटों पर चुनाव करवाया जाना संभव नहीं।
ऐसे में अब उत्तराखंड की विधानसभा के कार्यकाल पूरा होने से एक साल से भी कम समय बचे होने के कारण (गंगोत्री विधानसभा 22 अप्रैल को रिक्त हुई) अब यहाँ कोई उपचुनाव संभव नहीं।
ऐसे में अगर चुनाव आयोग कोई नुक्ता निकाल कर यहाँ चुनाव कराने का रास्ता निकालता भी है तो विपक्षी पार्टियों द्वारा इसे निश्चित रूप से अदालत में खींचा जायेगा जिसके चलते उसका परिणाम कुछ भी निकले, भाजपा केंद्रीय नेतृत्व की बहुत छेछा लेदर होगी।
भाजपा के लिए यह आपदा में अवसर बन सकता है
अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि एक बार फिर से मुख्यमंत्री बदलने से क्या भाजपा को फ़ज़ीहत नहीं होगी? तो दृष्टिकोण व पोलीचर्चा का ऐसा मानना है कि संवैधानिक मजबूरी का हवाला देकर भाजपा बहुत आसानी से इस मामले को नया मोड़ दे सकती है। साफ बच कर निकल सकती है। और पूरी शक्ति के साथ एक बार फिर से आने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक कर पुनः अपनी सरकार बना सकती है।
इस आपदा में भाजपा के लिए अवसर यूं भी बन सकता है कि जिस सामाजिक, जातिगत, और प्रादेशिक ताने-बाने को वह ठीक नहीं कर पाई थी, वह इस अवसर का लाभ उठा कर उस समय रह गयी इस कमी को दूर कर सकती है।
भाजपा के पास विकल्प क्या क्या हैं?
- केंद्रीय मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक
- सांसद अजय भट्ट
- मदन कौशिक
उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में जहाँ मदन कौशिक के लिए पहाड़ी ना होकर एक मैदानी नेता होना उनकी स्वीकार्यता को कम करता है, वहीँ निशंक को इस वक़्त केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटाकर प्रदेश में लाना तर्कसंगत नहीं होगा।
ऐसे में अगर ऊपर लिखी गयी दोनों बातों को आधार बना कर निर्णय लिया जाये तो संसद सदस्य अजय भट्ट एक स्वाभाविक पसन्द बन कर उभरते हैं क्योंकि वह ब्राह्मण और कुमाऊं दोनों अनिवार्यताओं को पूरा करते हैँ।
भाजपा आलाकमान अजय भट्ट को मुख्यमंत्री बनाती है तो प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री दोनों ब्राह्मण समाज से हो जायेंगे।
उसके लिए अगर तीरथ सिंह को मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी से मुक्त करके प्रदेश अध्यक्ष बना दिया जाये तो ब्राह्मण /ठाकुर के साथ साथ गढ़वाल /कुमाऊं दोनों समस्याओं का सफल समाधान हो सकता है।
इस से ना सिर्फ तीरथ सिंह रावत जी का सम्मानजनक पुनर्वासन हो जायेगा, बल्कि भाजपा के मुख्यमंत्री बदलने के फैसले/मजबूरी पर इस मुद्दा बनाने को तैयार बैठी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के मुँह पर भी ताला लग जायेगा।
अब देखना दिलचस्प होगा की चुनाव मशीन भाजपा का थिंक टैंक क्या रास्ता निकालता है।